4 अक्टूबर सन् 2023 को 166वीं जयन्ति पर
और 167वें जन्मदिन पर विशेष भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार-
श्यामजी कृृष्ण वर्मा
लेखक: वासुदेव मंगल, ब्यावर सिटी (राज.)
संसार में समय-समय पर अनेक महान् आत्मायें उत्पन्न होती है। लेकिन उनमें से
बहुमुखी प्रतिभाशालिनी बहुत कम हुआ करती है। उनके चरित्र देशवासियों और विशेषतः
नवयुवकों के लिए आदर्श रूप हुआ करते हैं। ऐसे ही महापुरूषों में से श्यामजी
कृष्ण वर्मा एक थे।
अपर्याप्त साधनों के होते हुए भी अपनी प्रखर प्रतिभा से उन्होंने जो कुछ
विद्योपार्जन और धनार्जन किया उसे देखकर आश्यर्च ही होता है। जहॉं एक ओर हम उनके
प्रकाण्ड पाण्डित्य की प्रशंसा करते हैं वहॉैं दूसरी ओर हमें उनकी राजनीतिज्ञता
और शासन कुशलता के सम्मुख नत मस्तक होना पड़ता है। अपने गुरू महर्षि दयानन्द का
वैदिक सन्देश पाश्चात्य संस्कृत विद्धानों के पास तक पहुॅंचाने वाले तथा भारतीय
संस्कृति और गौरव की छाप उनके हृदयों पर जमाने वाले वह सर्वप्रथम भारतीय थे।
श्यामजी कृष्ण वर्मा ने न केवल भारत माता की दासता की बेड़ियों को काटने के लिये
एक क्रान्तिकारी के रूप में विलायत में ‘भारत-भवन’ की स्थापना की।
आशा है साहित्य, संस्कृति, राजनीति, शासन, देशभक्ति, व्यवसाय-व्यापार तथा
धनोपार्जन और उसका सदुपयोग आदि अनेक क्षेत्रों में अग्रसर होने की अभिलाषा रखने
वाले हमारे नवयुवक और नवयुवतियॉं इस आदर्श महापुरूष के जीवन से शिक्षा अपने में
आत्मसात कर सकते हैं।
सन् 1857 की महान् क्रान्ति के युग में भारत वर्ष में जिन महान् आत्माओं ने
जन्म लिया उनमें से दो प्रमुख है। एक तो लोकमान्य तिलक और दूसरे श्यामजी कृष्ण
वर्मा।
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर सन् 1857 में माण्डवी (कच्छ) के एक गरीब
हिन्दू (भंसाली) परिवार में हुआ था। उनके जन्म के समय उनके पिता बम्बई में येन
केन प्रकारेण जीविकोपार्जन करते थे। साधनों के अभाव में उनके पिता ने उनकी
गर्भवती माता को नानी के घर भेज दिया। सन् 1857 के राष्ट्रीय विप्लव के वातावरण
में उनका जन्म हुआ। प्रारम्भ से ही ये बड़े मेघावी बालक थे। गरीब होने पर भी उनके
माता-पिता ने उन्हें भुज की अंग्रेजी पाठशाला में पढ़ने भेज दिया। उनकी स्नेहमयी
माता उन्हें 10 वर्ष की आयु में छोड़कर चल बसी। उनके पिता इतने गरीब हो चुके थे
कि वे उन्हें जीवन पथ पर अग्रसर करने में किसी भी प्रकार की सहायता देने में
असमर्थ थे। श्यामजी के पास अब, अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के अतिरिक्त, आगे बढ़ने का
कोई साधन नहीं था।
श्यामजी की नानी ने उन्हें बम्बई के विल्सन हाई स्कूल में भर्ती करवा दिया।
अंग्रेजी के साथ-साथ उन्होंने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
केवल 18 वर्ष की आयु में, सन् 1875 मंे जबकि ऋषि दयानन्द के सम्पर्क में आये।
ऋषि दयानन्द उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्हें विदेश
में भेजकर आगे शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया।
मार्च 1879 में ऋषि दयानन्द के आदेशानुसार श्यामजी लीवरपुल गए।
26 वर्ष की आयु में श्यामजी ने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा
प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। विदेश में प्रथम भारतीय ग्रेजुयेट होने का श्रेय
आपको ही है।
बैरिस्ट्री पास करके श्ष्यामजी 1883 में स्वदेश लौटे और 8 जनवरी 1884 में आपने
उदयपुर में एक बड़ा प्रभावशाली भाषण दिया। इसके पश्चात् 1884 के मार्च में पुनः
अपनी धर्मपत्नि के साथ विलायत चले गए। वहॉं से जनवरी सन् 1885 में वापिस भारत
लौट आये। लौटते समय भारत के भू.पू. वायसराय लार्ड नार्थब्रुक ने एक उच्च पद के
लिये आपकी सिफारिश की, किन्तु आपने किसी भी ऊॅंचें से ऊॅंचे सरकारी पद को लेना
अस्वीकार कर दिया।
भारत में आप केवल 12 वर्ष (सन् 1885-97) तक रहे। आप आते ही बम्बई हाई कोर्ट के
एडवोकेट बन गए। किन्तु आपका प्रेम अधिकतर राजस्थान की ओर था। अतः आप अजमेर चले
आये। अजमेर तथा ब्यावर में आपने बहुत समय तक बैरिस्ट्री की। श्यामजी की प्रतिभा
सर्वतोमुखी थी। आपने सन् 1892 में एक विशाल ओद्योगिक संघ की स्थापना की जिसके
फलस्वरूप ही ब्यावर में राजपूताना कॉटन प्रेस की स्थापना हुई। ब्यावर का
सम्बन्ध आपसे सन् 1913 तक रहा। आप 21 वर्ष तक उपरोक्त प्रेस के मैनेजिंग
डायरेक्टर रहे। इसी वर्ष आपने अजमेर में राजपूताना प्रिन्टिंग प्रेस की एंव्
केकड़ी में हाडोती कॉटन प्रेस की तथा नसीराबाद में आर्यन कॉटन प्रेस की स्थापना
की। श्यामजी अपनी लोकप्रियता के कारण अजमेर म्युनिसिपेलिटी के सदस्य भी चुने गए।
राजस्थान के कई नरेशों का ध्यान इस प्रतिभाशाली व्यक्ति की ओर आकर्षित हुआ। सन्
1888 में आप रतलाम नरेश की इच्छा से वहॉं के प्रधानमंत्री बने। तत्पश्चात
उदयपुर महाराणा ने 21 दिसम्बर सन् 1892 में अपने यंहा एक हजार रूपये मासिक वेतन
पर मन्त्री बनाया। सन् 1895 में आप पन्द्रहसो रूपये मासिक वेतन पर जूनागढ़ के
दीवान बनाये गए। परन्तु आप साथ ही साथ क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन भी
निरन्तर करते रहे जिससे आप नवीन राष्ट्रीय आन्दोलन की महान् जागृति के सूत्रधार
बने और भारतीय स्वतन्त्रता तथा संस्कृति का झण्डा लन्दन, पेरिस, जिनेवा आदि में
फहराकर संसार में भारत के नाम को उज्जवल किया।
श्यामजी ने गुलामी के प्रति धधकने वाली ज्वाला की चिंगारियां भारतीय युवकों के
हृदय में डाल दी। भारत तथा विदेशों में रहकर उन्होंने क्रान्ति का शॅंखनाद
भारतीय जनता में फूॅंका तथा अनेकों महान् क्रान्तिकारियों का निर्माण उनके हाथों
हुआ।
सन् 1905 में श्यामजी ने लन्दन में ‘इण्डिया-हाऊस’ की स्थापना की। वहां पर
उन्होंने इण्डिया होमरूल सोसाईटी बनाई। इस आशय के लिये उन्होंने एक समाचार पत्र
भी निकाला जिसका नाम ‘इण्डियन सोशियोलौजिस्ट’ रक्खा। इस सोसाईटी का उदेद्श्य
भारत में स्वराज्य स्थापित करने के लिये इंग्लैण्ड में जनमत जागृत करना था। यह
भारतीय भवन विदेश में देशभक्तों का एक अच्छा केन्द्र हो गया। इसकी भनक
इंग्लैण्ड की पार्लियामेन्ट को पड़ गई। अतः श्यामजी इंग्लैण्ड से पेरिस चले गए।
पेरिस में इंग्लैण्ड से अधिक सुविधा उनको मिली। भारत के नवयुवक जो विदेशों में
जाकर शिक्षा ग्रहण करने के इच्छुक थे उनके लिये श्यामजी कृष्ण वर्मा ने छः
छात्रवृत्तियॉं एक-एक हजार रूपये प्रति माह की आरम्भ की। वीर साबरकर आपका पहीला
शिष्य था जो बाद में आपका दाहिना हाथ बना। प्रोफेसर मेक्समूलर, प्रोफेसर मोलियर
विलियम्स्, शरदचन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, ऐलिट साहिब ने आपके क्रान्तिकारी
लेखों की प्रशंसा की है। लाला लाजपतराय ने भी आपके लेखों की प्रशंसा की। सरकार
के करेन्सी नोटों पर आपने एक लम्बी लेख माला लिखकर संसार को बतलाया कि ब्रिटिश
साम्राज्यवाद आर्थिक रूप से किस प्रकार भारत का शोषण कर रहा है।
संसार के इतिहास में श्यामजी कृष्ण वर्मा की भॅंाति ऐसा कोई व्यक्ति शायद ही
उत्पन्न हुआ हो जिसमें उनकी ही भंाति समस्त गुणों का समावेश रहा हो। जन्म लेते
ही इस महान् व्यक्ति ने 1857 की महान् क्रान्ति के दिनों में तलवारों की झनकार
सुनी, यौवन में पदार्पण करते ही ऋषि दयानन्द का दिव्य सन्देश सुना, विदेशी शासकों
से देश को मुक्त कराने के प्रयास में राष्ट्रीय महासभा कॉंग्रेस की स्थापना इनके
जीवन में ही हुई। धूल में पडे़ हुए अनेकों पत्थरों को चुनकर उन्होंने उनको
अमूल्य रत्न बनाया जिन रत्नों के दैदीप्यमान् प्रकाश से भारतीय इतिहास उज्जवल
हो उठा है। अनेकों राजनीतिज्ञों तथा विद्धानों से उन्होंने सन्सर्ग प्राप्त किया
तथा प्राचीन और अर्वाचीन राजनीति के विकास में भी सहयोग दिया। वास्तव में
श्यामजी कृष्ण वर्मा अपने युग के महान् पुरूष थे। साथ ही उनके आकर्षक
व्यक्तित्व ने भी उन सब को प्रभावित किया जो भी उनके सम्पर्क में आये। उनका चौड़ा
ललाट, गौरा मुॅंह तथा रौबीली मूॅंछें देखकर अनेकों विदेशी अघिकारी भी भय मानते
थे।
31 मार्च सन् 1930 में इस महान् व्यक्ति की मृत्यु हो गई।
इंग्लैण्ड के अमर नाटककार शेक्सपीअर के शब्दों में ‘श्यामजी कृष्ण वर्मा एक
पूर्ण व्यक्ति थें और उनकी शान का व्यक्ति मुझे ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा’।
श्यामजी कृष्ण वर्मा का रूपबानी सिनेमा के पिछे राजपुताना कॉटन प्रेस था जिसको
उन्होंने सन् 1892 में ब्यावर में रहते हुए लगाया था लेकिन 1905 में वो लन्दन
चले गये और उसकी सम्भालनी नवरंगराय जी शर्मा को देकर गये थे जो कुछ समय एडवर्ड
मील में सेक्रटरी थे। वो इस प्रेस के मैनेजिंग डायरेक्टर थे। श्यामजी कृष्ण
वर्मा का सन् 1930 में जिनेवा में मृत्यु हो गई और उनकी पत्नि भानूप्रिया की
मृत्यु भी वहीं हो गई थी। उनके कोई बच्चा नहीं था इसलिये यह सारी खाली जो
जायदाद थी ब्यावर की, यह ट्रस्टीशिप में नवरंग राय जी शर्मा के पास थी। बाद में
नवरंग राय जी शर्मा जी के चौथी दत्तक पिढ़ी पुत्र ने इसको अब खुदबुर्द कर दिया
है। श्यामजी कृष्ण वर्मा के प्रेस को, उसकी मशीनरी को, जमीन को खुदबुर्द कर दिया
है यह बडे़ दुख की बात है ऐसे महान् व्यक्तित्व का यहाँ मैमोरियल होना चाहिए था
उनका यहाँ वाचनालय, पुस्तकालय उनकी यादें होनी चाहिए थी जो ब्यावर के स्वतन्त्रा
सैनानी और ग्रेटपैट्रीयोट थे उनकी यहा निशानी होनी चाहिए थी लेकिन बडे़ दुख के
साथ कहना पड़ रहा है कि ब्यावर की नगर परिषद् ने, ब्यावर के लोगों ने इनकी जमीन
को खुदबुर्द कर दिया है। श्यामजी कृष्ण वर्मा के 166वीं जयन्ति पर और 167वें
जन्मदिन पर मंगल परिवार की तरफ से उनको बहुत बहुत शत् शत् नमन्।
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